दस साल में निकला दम
फरजंद अहमद, पूर्व सूचना आयुक्त, बिहार
First Published:12-10-14 09:10 PM
Last Updated:12-10-14 09:10 PM
जाने-माने ब्रिटिश कवि और स्कॉलर रिचर्ड गारनेट ने एक बार कहा था कि हर परदे की ख्वाहिश होती है कि कोई उसे बेपरदा करे, सिवाय पाखंड के परदे का। पाखंड का परदा व्यवस्था के चेहरे से उठे या न उठे, मगर सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करने वालों के बीच फैलता खौफ और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता की गारंटी देने वाला सूचना अधिकार कानून खुद पाखंड के परदे के भीतर दम तोड़ रहा है। आज आरटीआई की दसवीं वर्षगांठ है, मगर पहली बार केंद्रीय सूचना आयोग में न तो कोई शिकवा-शिकायत करने वाला होगा और न ही सूचना का अधिकार, यानी सनशाइन कानून पर मंडराते स्याह बादलों पर कोई चर्चा होगी। केवल बंद कमरे में एक औपचारिकता पूरी की जाएगी, क्योंकि केंद्रीय सूचना आयोग में फिलहाल कोई मुख्य सूचना आयुक्त नहीं। पहले राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री इसका उद्घाटन करते थे और सरकार की नजर में इस कानून की कमजोरियों या उपलब्धि पर बहस की शुरुआत करते थे, लेकिन नई सरकार को इतनी फुरसत नहीं मिली कि वह मुख्य सूचना आयुक्त नियुक्त कर सके।
जो कानून अब तक जनता के हाथ में एक धारदार हथियार था, प्रजातंत्र के लिए ऑक्सीजन था, उस हथियार की धार दस वर्षों में ही कुंद हो चुकी है। सरकारें या प्रशासन हर आवेदक को शक की नजरों से देखते हैं, इसलिए लोक सूचना पदाधिकारी सूचना देने से कतराते हैं या फिर उन्हें दौड़ाते रहते हैं। नतीजा यह है कि वादों का अंबार आकाश छू रहा है। आवेदक अपनी अपील लेकर आयोग का चक्कर काटते-काटते थकते जा रहे हैं। युवा सामाजिक कार्यकर्ता उत्कर्ष सिन्हा को लगता है कि अब हर आवेदक राग दरबारी का बेबस लंगड़ बनकर रह जाएगा, जिसने पूरी जिंदगी एक दस्तावेज की नकल के लिए गंवा दी थी। आरटीआई असेसमेंट और एडवोकेसी ग्रुप और समय-सेंटर फॉर इक्विटीज के अनुसार, आज सूचना आयोगों में करीब दो लाख वाद सुनवाई के लिए तरस रहे हैं। अध्ययन के अनुसार, मध्य प्रदेश में यदि आज कोई अपील दाखिल करता है, तो 60 साल बाद उसका नंबर आएगा। वहीं पश्चिम बंगाल में उसे 17 साल, राजस्थान में तीन साल, असम और केरल में दो साल इंतजार करना होगा। खुद केंद्रीय सूचना आयोग में 26,115 मामले लंबित हैं।
अध्ययन के अनुसार, सबसे अधिक मामले सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में लंबित हैं। इनकी संख्या 48,442 है, जबकि महाराष्ट्र सूचना मांगने वालों की हत्या और उत्पीड़न में पूरे देश में अव्वल नंबर पर है। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट इनीशिएटिव के अनुसार, महाराष्ट्र में अब तक 53 आवेदकों पर जानलेवा हमले हो चुके हैं, जिनमें नौ लोगों की जान जा चुकी है, जबकि बिहार में छह लोग सूचना मांगने के कारण मारे गए हैं। जाने-माने आरटीआई एक्टिविस्ट शिव प्रकाश राय (जिन्होंने सूचना मांगने के कारण झूठे मामले में कई महीने जेल में गुजारे थे) के अनुसार, बिहार में आवेदकों पर अब हमले कुछ कम इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि दहशत के कारण लोग सूचना मांगने के पहले कई बार सोचते हैं। महाराष्ट्र के बाद गुजरात का नंबर आता है, जहां 34 कार्यकर्ताओं पर हमले हो चुके हैं। उनमें से तीन मारे जा चुके हैं।
मगर उत्तर प्रदेश में सूचना की बदहाली नई मिसाल कायम कर रही है। यहां फिलहाल नौ सूचना आयुक्त हैं, जिनकी काबिलियत और उदासीनता पर चर्चा चल रही है। अन्य संस्थानों के साथ-साथ एक्टिविस्ट और सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा ने यूपी के सूचना आयुक्तों पर अक्षमता का आरोप लगाते हुए नौ आयुक्तों को खुली बहस की चुनौती दी है। सामाजिक कार्यकर्ता, आरटीआई विशेषज्ञ और 'तहरीर' के संस्थापक अध्यक्ष संजय शर्मा ने भी वर्तमान सूचना आयुक्तों से एक साथ अकेले या खुली बहस करने की चुनौती दी है। पिछले तीन वर्षों से केंद्र सरकार सूचना का अधिकार कानून को नई ताकत देने के नाम पर इसे कमजोर करने का काम कर रही थी। साल 2011 में केंद्रीय सूचना आयोग ने तत्कालीन राष्ट्रपति (प्रतिभा पाटिल) को अपनी संपत्ति का ब्योरा देने का आदेश दिया था। उन्हीं दिनों 2-जी स्पेक्ट्रम के संबंध में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी (अब राष्ट्रपति) की फाइल टिप्पणी को सरेआम करना पड़ा था। फिर रॉबर्ट वाड्रा की लैंड डील का मामला आरटीआई के माध्यम से उछला।
इन सबका असर सरकार पर दिखाई पड़ा। 15 अक्तूबर, 2011 को केंद्रीय सूचना आयोग के सालाना सम्मलेन में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि अब हमें सूचना के अधिकार कानून पर आलोचनात्मक रुख अपनाना होगा.., आरटीआई का सरकारी विचार-विमर्श की प्रक्रिया पर उल्टा असर नहीं पड़ना चाहिए। फिर अगले साल 12 अक्तूबर, 2012 को मनमोहन सिंह ने कहा कि निजता का उल्लंघन करने वाली बेहूदा और परेशान करने वाली आरटीआई आवेदनों को लेकर चिंता पैदा हो रही है। ठीक इसके बाद ही खबर आई थी कि केंद्र सरकार ने यह फैसला किया है कि वह एक समिति गठित कर यह पता लगाएगी कि सूचना एकत्र करने और देने पर सरकार का कितना खर्च आता है।
इस तरह की बात सूचना के अधिकार अधिनियम की आत्मा के खिलाफ है, क्योंकि इस कानून की धारा 7(3) साफ तौर पर कहती कि सूचना की कॉपी पर खर्च आवेदक को ही वहन करना होगा। साफ है कि दस साल के भीतर ही इसे कमजोर करने की कवायद शुरू हो चुकी है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के कई फैसलों ने आवेदकों के बीच खलबली मचा दी थी। दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया था कि हर सूचना आयोग दो-आयुक्तों का पीठ होगा, जिसमें एक हाई कोर्ट के जज होंगे। मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर कोई जज ही होगा। इस आदेश के बाद कई राज्य आयोग का कामकाज बंद हो गया। बाद में खुद सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को 'मिस्टेक ऑफ लॉ' कहकर वापस ले लिया। बिहार सहित कई राज्यों में धारा 20 के तहत लगाए गए दंड की सही तरीके से वसूली नहीं होती, जिसके कारण लोक सूचना पदाधिकारियों का मनोबल बढ़ता जा रहा है और आवेदक भटक रहे हैं। आज दुनिया के लगभग 100 देशों में सूचना का अधिकार कानून लागू है। दक्षिण एशिया में भारत का कानून सबसे कारगर था, क्योंकि खुद कार्यकर्ताओं ने इसकी रचना की थी और केंद्र सरकार ने भी इसे लागू करने में खासी दिलचस्पी दिखाई थी। मगर अब जब सूचना का अधिकार कानून खुद सरकारों के गले की हड्डी बन चुका है, तब कौन बचाए इसे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
जो कानून अब तक जनता के हाथ में एक धारदार हथियार था, प्रजातंत्र के लिए ऑक्सीजन था, उस हथियार की धार दस वर्षों में ही कुंद हो चुकी है। सरकारें या प्रशासन हर आवेदक को शक की नजरों से देखते हैं, इसलिए लोक सूचना पदाधिकारी सूचना देने से कतराते हैं या फिर उन्हें दौड़ाते रहते हैं। नतीजा यह है कि वादों का अंबार आकाश छू रहा है। आवेदक अपनी अपील लेकर आयोग का चक्कर काटते-काटते थकते जा रहे हैं। युवा सामाजिक कार्यकर्ता उत्कर्ष सिन्हा को लगता है कि अब हर आवेदक राग दरबारी का बेबस लंगड़ बनकर रह जाएगा, जिसने पूरी जिंदगी एक दस्तावेज की नकल के लिए गंवा दी थी। आरटीआई असेसमेंट और एडवोकेसी ग्रुप और समय-सेंटर फॉर इक्विटीज के अनुसार, आज सूचना आयोगों में करीब दो लाख वाद सुनवाई के लिए तरस रहे हैं। अध्ययन के अनुसार, मध्य प्रदेश में यदि आज कोई अपील दाखिल करता है, तो 60 साल बाद उसका नंबर आएगा। वहीं पश्चिम बंगाल में उसे 17 साल, राजस्थान में तीन साल, असम और केरल में दो साल इंतजार करना होगा। खुद केंद्रीय सूचना आयोग में 26,115 मामले लंबित हैं।
अध्ययन के अनुसार, सबसे अधिक मामले सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में लंबित हैं। इनकी संख्या 48,442 है, जबकि महाराष्ट्र सूचना मांगने वालों की हत्या और उत्पीड़न में पूरे देश में अव्वल नंबर पर है। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट इनीशिएटिव के अनुसार, महाराष्ट्र में अब तक 53 आवेदकों पर जानलेवा हमले हो चुके हैं, जिनमें नौ लोगों की जान जा चुकी है, जबकि बिहार में छह लोग सूचना मांगने के कारण मारे गए हैं। जाने-माने आरटीआई एक्टिविस्ट शिव प्रकाश राय (जिन्होंने सूचना मांगने के कारण झूठे मामले में कई महीने जेल में गुजारे थे) के अनुसार, बिहार में आवेदकों पर अब हमले कुछ कम इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि दहशत के कारण लोग सूचना मांगने के पहले कई बार सोचते हैं। महाराष्ट्र के बाद गुजरात का नंबर आता है, जहां 34 कार्यकर्ताओं पर हमले हो चुके हैं। उनमें से तीन मारे जा चुके हैं।
मगर उत्तर प्रदेश में सूचना की बदहाली नई मिसाल कायम कर रही है। यहां फिलहाल नौ सूचना आयुक्त हैं, जिनकी काबिलियत और उदासीनता पर चर्चा चल रही है। अन्य संस्थानों के साथ-साथ एक्टिविस्ट और सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा ने यूपी के सूचना आयुक्तों पर अक्षमता का आरोप लगाते हुए नौ आयुक्तों को खुली बहस की चुनौती दी है। सामाजिक कार्यकर्ता, आरटीआई विशेषज्ञ और 'तहरीर' के संस्थापक अध्यक्ष संजय शर्मा ने भी वर्तमान सूचना आयुक्तों से एक साथ अकेले या खुली बहस करने की चुनौती दी है। पिछले तीन वर्षों से केंद्र सरकार सूचना का अधिकार कानून को नई ताकत देने के नाम पर इसे कमजोर करने का काम कर रही थी। साल 2011 में केंद्रीय सूचना आयोग ने तत्कालीन राष्ट्रपति (प्रतिभा पाटिल) को अपनी संपत्ति का ब्योरा देने का आदेश दिया था। उन्हीं दिनों 2-जी स्पेक्ट्रम के संबंध में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी (अब राष्ट्रपति) की फाइल टिप्पणी को सरेआम करना पड़ा था। फिर रॉबर्ट वाड्रा की लैंड डील का मामला आरटीआई के माध्यम से उछला।
इन सबका असर सरकार पर दिखाई पड़ा। 15 अक्तूबर, 2011 को केंद्रीय सूचना आयोग के सालाना सम्मलेन में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि अब हमें सूचना के अधिकार कानून पर आलोचनात्मक रुख अपनाना होगा.., आरटीआई का सरकारी विचार-विमर्श की प्रक्रिया पर उल्टा असर नहीं पड़ना चाहिए। फिर अगले साल 12 अक्तूबर, 2012 को मनमोहन सिंह ने कहा कि निजता का उल्लंघन करने वाली बेहूदा और परेशान करने वाली आरटीआई आवेदनों को लेकर चिंता पैदा हो रही है। ठीक इसके बाद ही खबर आई थी कि केंद्र सरकार ने यह फैसला किया है कि वह एक समिति गठित कर यह पता लगाएगी कि सूचना एकत्र करने और देने पर सरकार का कितना खर्च आता है।
इस तरह की बात सूचना के अधिकार अधिनियम की आत्मा के खिलाफ है, क्योंकि इस कानून की धारा 7(3) साफ तौर पर कहती कि सूचना की कॉपी पर खर्च आवेदक को ही वहन करना होगा। साफ है कि दस साल के भीतर ही इसे कमजोर करने की कवायद शुरू हो चुकी है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के कई फैसलों ने आवेदकों के बीच खलबली मचा दी थी। दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया था कि हर सूचना आयोग दो-आयुक्तों का पीठ होगा, जिसमें एक हाई कोर्ट के जज होंगे। मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर कोई जज ही होगा। इस आदेश के बाद कई राज्य आयोग का कामकाज बंद हो गया। बाद में खुद सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को 'मिस्टेक ऑफ लॉ' कहकर वापस ले लिया। बिहार सहित कई राज्यों में धारा 20 के तहत लगाए गए दंड की सही तरीके से वसूली नहीं होती, जिसके कारण लोक सूचना पदाधिकारियों का मनोबल बढ़ता जा रहा है और आवेदक भटक रहे हैं। आज दुनिया के लगभग 100 देशों में सूचना का अधिकार कानून लागू है। दक्षिण एशिया में भारत का कानून सबसे कारगर था, क्योंकि खुद कार्यकर्ताओं ने इसकी रचना की थी और केंद्र सरकार ने भी इसे लागू करने में खासी दिलचस्पी दिखाई थी। मगर अब जब सूचना का अधिकार कानून खुद सरकारों के गले की हड्डी बन चुका है, तब कौन बचाए इसे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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Posted by: urvashi sharma <rtimahilamanchup@yahoo.co.in>
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